कल दिन में, मैं बाई-गाड़ !! भूत से मिला |
हाँ वही भूत जो मुझे सपनो में कई सालों से हा हा करके डराता था |
उसने हाथों में किताबें लीं हुईं थीं , कानों में मोटा चश्मा लगा ,
भंयकर सी सूरत बनाये, मेरे ओर चला आ रहा था |
मैं डर गया , सहम गया , की अब ये भूत अपनी भूतकाल की बातें कह मुझे डराएगा और,
मेरे अज्ञानता की मज़ाक-ठिठोली उडाएगा | बड़ा ही कठोर था यह भूत!!!
मैंने मन ही मन में सोचा ,
मैं तो यही जानता था कि , भूत बड़े ही फ्लेक्सिवल होते है |
हर रूप धर सकते है , हर राज़ जान सकते है |
तो क्यों नहीं ? ये भूत भी कुछ ऐसा रूप धरे ,
जिसे देख मेरा मन न डरे |
भूत जान चूका था मेरे मन की बात, कुटिल मुस्कान भरे ,
लाल लाल खौफनाक निगाहों से भूत ने मेरी ओर देखा और कहा ,
फ्लेक्सिवल हुए तो डराने वाली सिलेबस पीछे छूट जाएगी ,
और भूतों की टोली में हमारी नाक कट जाएगी |
मैंने डरते हुए पूछा : भूत होकर भी क्यों डरते हो ? ,
अगर हमें अपनी भूतविद्या से वर्तमान में रहते हुए भविष्य की कल्पना करने का हुनर सिखाओगे ,
तो जल्द ही अपने इस भूतयोनी से छूटकर पाओगे |
और अगर नहीं करोगे ये , तो भविष्य में हमें भी अपने टोली में भूत बना शामिल पाओगे |
हम भी भूत बनकर भविष्य को डरायेंगे और ,
धीरे धीरे सारे देश को भूतों का डेरा बनायेंगे |
अगर नहीं चाहते हो ये तो, सिलेबस के मापदंड से निकलो,
हमे बिना डराए , भविष्य की कल्पना करना सिखाओ ,
अतः खुद को धन्य करो , और हमे भी भूत बनने से बचाओ |
Monday, November 7, 2011
Tuesday, September 13, 2011
मैं मानता हूँ की
अरे गूगल ग्रह के निवासियों !!
हाँ मैं तुमसे कह रहा हूँ |
मस्तिष्क के सीमा का विस्तार करो ,
निकालो अपने को सर्च बॉक्स के घेरे से ,
और दूंढ निकालो कुछ नए नवेले आविष्कार ,
मस्तिष्क के घने आपार , अनजान , विस्तृत अँधेरे से |
मैं मानता हूँ की नैनो सेकंडो का काम नहीं है ये ,
पर आविष्कारो को जन्म देना भी , मशीनों का व्यायाम नहीं है |
कट-कॉपी-पेस्ट के व्यापार को हमे छोड़ना होगा ,
और नविन चिंतन के तकनीकियों से जुड़ना होगा |
मैं मानता हूँ की इस अभ्यास से निकलने में समय लगेगा ,
पर अभ्यास भी मशीन नहीं मनुष्य ही करेगा |
गूगल को तुम अपने घर में कभी कभी आने वाले विद्वान की तरह देखो ,
उससे राह पूछो , मंजिल नहीं |
मैं मानता हूँ की मंजिल ही अगर मिल जाये तो राह की जोखिम क्यों उठाये ?
पर अनजानी राह पर गिरते , पड़ते , संभलते चलना और मंजिल पाना भी मशीनों का काम नहीं |
- कमल कान्त गुप्ता
पि० जि० टि० कम्प्यूटर साइंस
हाँ मैं तुमसे कह रहा हूँ |
मस्तिष्क के सीमा का विस्तार करो ,
निकालो अपने को सर्च बॉक्स के घेरे से ,
और दूंढ निकालो कुछ नए नवेले आविष्कार ,
मस्तिष्क के घने आपार , अनजान , विस्तृत अँधेरे से |
मैं मानता हूँ की नैनो सेकंडो का काम नहीं है ये ,
पर आविष्कारो को जन्म देना भी , मशीनों का व्यायाम नहीं है |
कट-कॉपी-पेस्ट के व्यापार को हमे छोड़ना होगा ,
और नविन चिंतन के तकनीकियों से जुड़ना होगा |
मैं मानता हूँ की इस अभ्यास से निकलने में समय लगेगा ,
पर अभ्यास भी मशीन नहीं मनुष्य ही करेगा |
गूगल को तुम अपने घर में कभी कभी आने वाले विद्वान की तरह देखो ,
उससे राह पूछो , मंजिल नहीं |
मैं मानता हूँ की मंजिल ही अगर मिल जाये तो राह की जोखिम क्यों उठाये ?
पर अनजानी राह पर गिरते , पड़ते , संभलते चलना और मंजिल पाना भी मशीनों का काम नहीं |
- कमल कान्त गुप्ता
पि० जि० टि० कम्प्यूटर साइंस
Tuesday, February 22, 2011
मरते समय
मरते समय, एक डाक्टर की सोच ,
काश, रामू का एक्स-रे झूठा होता ,
और उसके पेट में हमसे कैंची , छुटा न होता |
काश , हरिया से स्वर्ग में , मिलने की संभावनाए न होती ,
अगर उसके हाथ में मेरी लिखी बेमर्ज की दवाएं न होती |
मरते समय , एक नेता की सोच ,
काश , रामू की गाय का चारा हमने खाया न होता ,
तो आज यूँ जानवरों के डाक्टरों के हाथ हमारा इलाज न हो रहा होता |
काश निर्दलियों को ऊँची दामो पर खरीदी न होती ,
तो आज हमारा भी इलाज इस जनरल वार्ड के बजाये , डीलक्स रूम में हो रहा होता |
मरते समय एक कवी की सोच,
काश श्रोताओ को इतना ज़हरीला कविता सुनाया न होता ,
तो आज हमे भी पैसे के अभाव में जहर खा कर सोना न पड़ता |
काश , कुछ अपनी भी लिखी कविताये सुनाई होती,
तो यूँ नीरस मौत की गुन्जायिश नहीं होती |
मरते समय , एक इंजिनियर की सोच ,
काश प्राइवेट कालेज में पिताजी ने "प्राइवेटली" दाखिला कराया न होता ,
तो हमने भी सरकारी पुल को अपना प्राइवेट समझ कर गिराया न होता |
काश , इंजीनियरिंग के बजाये अपना रुचिकर इतिहास पढ़ा होता ,
तो आज इमारतों के पत्तन का कारण न बनकर , उनके कारणों को खोज रहा होता |
मरते समय एक वकील की सोच ,
काश , काले सच को सफ़ेद झूठ का लिबास , उढाया न होता ,
तो शायद कुछ सच्चे लोगो का ताँता मेरे मरणशय्या के इर्द-गिर्द लगा होता |
मरते समय मेरी सोच ,
काश छात्रों के कुछ प्रश्नों का उत्तर हमने , "आउट आफ सिलेबस" कहकर टाला न होता ,
तो आज इन डाक्टरों , नेताओ , कवियों , इंजिनियरओ , वकीलों को मरते समय इतना सोचना न होता |
काश अपने शिक्षक होने का हमने थोडा भी गर्व किया होता ,
तो इन कई हज़ार जीवित प्रतिभाओ को उनके मौत के क्षण भी गर्व हो रहा होता |
काश, रामू का एक्स-रे झूठा होता ,
और उसके पेट में हमसे कैंची , छुटा न होता |
काश , हरिया से स्वर्ग में , मिलने की संभावनाए न होती ,
अगर उसके हाथ में मेरी लिखी बेमर्ज की दवाएं न होती |
मरते समय , एक नेता की सोच ,
काश , रामू की गाय का चारा हमने खाया न होता ,
तो आज यूँ जानवरों के डाक्टरों के हाथ हमारा इलाज न हो रहा होता |
काश निर्दलियों को ऊँची दामो पर खरीदी न होती ,
तो आज हमारा भी इलाज इस जनरल वार्ड के बजाये , डीलक्स रूम में हो रहा होता |
मरते समय एक कवी की सोच,
काश श्रोताओ को इतना ज़हरीला कविता सुनाया न होता ,
तो आज हमे भी पैसे के अभाव में जहर खा कर सोना न पड़ता |
काश , कुछ अपनी भी लिखी कविताये सुनाई होती,
तो यूँ नीरस मौत की गुन्जायिश नहीं होती |
मरते समय , एक इंजिनियर की सोच ,
काश प्राइवेट कालेज में पिताजी ने "प्राइवेटली" दाखिला कराया न होता ,
तो हमने भी सरकारी पुल को अपना प्राइवेट समझ कर गिराया न होता |
काश , इंजीनियरिंग के बजाये अपना रुचिकर इतिहास पढ़ा होता ,
तो आज इमारतों के पत्तन का कारण न बनकर , उनके कारणों को खोज रहा होता |
मरते समय एक वकील की सोच ,
काश , काले सच को सफ़ेद झूठ का लिबास , उढाया न होता ,
तो शायद कुछ सच्चे लोगो का ताँता मेरे मरणशय्या के इर्द-गिर्द लगा होता |
मरते समय मेरी सोच ,
काश छात्रों के कुछ प्रश्नों का उत्तर हमने , "आउट आफ सिलेबस" कहकर टाला न होता ,
तो आज इन डाक्टरों , नेताओ , कवियों , इंजिनियरओ , वकीलों को मरते समय इतना सोचना न होता |
काश अपने शिक्षक होने का हमने थोडा भी गर्व किया होता ,
तो इन कई हज़ार जीवित प्रतिभाओ को उनके मौत के क्षण भी गर्व हो रहा होता |
Friday, October 15, 2010
अब हम रावण नहीं जलाते
बात ग्रामों से उठकर शहरों में बस जाने का है ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
बात हमारे विकसित से विकाशशील होने का है ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
बहु बेटियों को जलाना ही रुचिकर है हमको ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हम भर भर अपने कार , स्कूटरों में इंधन जलाने से खुश हैं ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
दंगो में लोगों को जलाना उत्साहित करती हैं हमको ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
महंगाई से लगी आग को चुपचाप सह लेते हैं हम ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
इर्ष्या , क्रोध और अहंकार ही अब हमारे सुख दुःख के साथी हैं अब ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
राजनितिज्ञों और उनके सच्चे आश्वाशनो पर पूरा भरोसा है हमे ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमे वेद-पुराणों के "थीओरी" से ज्यादा अपने "प्रक्टिकल" होने पर गर्व है ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमारी मशालें बुझ चुकी हैं , रामयुग के आने के इन्तजार में ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमने रावण को ही जब अपना राम मान लिया है ,
तो क्यों हम रावण जलाये , क्यों व्यर्थ में अपना हाथ झुलसाये |
हमने रामायण बदलने की ठान ली है अब |
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
बात हमारे विकसित से विकाशशील होने का है ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
बहु बेटियों को जलाना ही रुचिकर है हमको ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हम भर भर अपने कार , स्कूटरों में इंधन जलाने से खुश हैं ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
दंगो में लोगों को जलाना उत्साहित करती हैं हमको ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
महंगाई से लगी आग को चुपचाप सह लेते हैं हम ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
इर्ष्या , क्रोध और अहंकार ही अब हमारे सुख दुःख के साथी हैं अब ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
राजनितिज्ञों और उनके सच्चे आश्वाशनो पर पूरा भरोसा है हमे ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमे वेद-पुराणों के "थीओरी" से ज्यादा अपने "प्रक्टिकल" होने पर गर्व है ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमारी मशालें बुझ चुकी हैं , रामयुग के आने के इन्तजार में ,
इसलिए अब हम रावण नहीं जलाते |
हमने रावण को ही जब अपना राम मान लिया है ,
तो क्यों हम रावण जलाये , क्यों व्यर्थ में अपना हाथ झुलसाये |
हमने रामायण बदलने की ठान ली है अब |
Wednesday, June 3, 2009
Banaras - A City of Holiness and tranquility...
Banaras a city so charismatic for years to come. A city where most of older people went to die. A city which is said to be situated at the tip of Lord Shiva's trishul. A city of Gods and Goddesses. A city turning urban from ancient. A city which runs with so much issues each day. Lets explore it...
Dt : 10-04-2009
This summer I really didn't made any meticulous plan to spend my vacation. I , my wife Sunita and son Kabir were really eager to visit my ancestral house in Kolkata, after a year long parting from home , from my parents, from my bros. Earlier We have made plans during prevoius year Autumn break to visit Varanasi. Varanasi - where half of my relatives leave , the maternal half as well as the migrated paternal half. The trip remained due for an unexpected official task during the autumn break. We had to cancel our plans. My wife consoled me saying that Baba Vishwanath is not eager to meet us. Well Man proposes God opposes, I thought. This summer vacation we did discussed that we should again try to visit Varanasi. But the fact that we had been long away from our parents in Kolkata, made us to give a second thought for the proposed trip, moreover the idea of going to leave a superlative place in terms of summer heat to a visit another which is also famous for its flamboyant heat was not at all logical to both of us. So we booked our tickets to Kolkata.But again God is almighty, my cousin at Varanasi whose marriage was postponed last year due to the sudden death of her father-in-law was fixed this year on 5th of May. 2009. My Aunt from Varanasi called us and invited to attend marriage ceremony.I was again with the job of cancelling Tickets and booking another for Varanasi. Luck favored us this time and we got Tickets. God sometime favors, when He is not working for another company.Well It was great to hear that all of my family members from Kolkata were also going to attend marriage ceremony at Banaras. Dt : 13-04-09We tried to get tickets to Banaras via Raipur route but, you are never sure to get one during the summer in India. I enquired for the ticket on NET, ending up only with two AC Waiting List tickets to Banaras. Still the waiting list number 01 and 02 didn’t comfort me, because I knew that it is never going to shift anyway.
Dt : 20-04-09
I was in School when my wife rang me and told me that she booked two confirmed AC tickets to Banaras on NET via Sambalpur, in case that our tickets via Raipur didn’t get confirmed. I was both happy and sad about her action. I knew that getting tickets during summer vacation to Banaras was next to impossible, but getting it via Sambalpur is not anyway less painful. The reason behind this was that Sambalpur is about 192 Km from our boarding Station Kesinga, and more pain added to that is there is no Superfast train playing between Kesinga and Sambalpur for our day of journey. So finally the situation stood that We have to board for Sambalpur on 02/05/2009 on a Local Passenger train, for a 4-6 hrs. clumsy journey , making a overnight stay that day in Sambalpur and then catch our train to Banaras on the very next day. It is easy to say all these plans verbally, but the thought that the scorching heat in Kesinga may arise upto anything between 45 0C to 490C on 2nd of May. God marriages are really made in heaven and the sufferers are on Earth. But I was still optimist about confirmation of tickets via Raipur, a bit though.
Dt. 25-04-09
I checked the status of our tickets, finding it immoveable as if like paws of Angad. I cancelled them thinking that we already had one option, why to wait for second, insanely. People always want a second option in-spite that; they have already one with them. Actually we never trust on sure shot options.
Dt. 02-04-09
It was morning 6.30, I woke up only to find that, the whole town was covered by the blinding sunlight, as if the Sun didn’t went anywhere but Bhawanipatna. It was 38 degree by 7.30 am, the local news revealed. I went school to take my last day classes before vacation. At 10.00 am I returned back from school, and started to get ready for the trip ahead. At 2.30 pm we started from Bhawanipatna Bus stand for Kesinga Railway station, it was a hot, dry day; temperature roared up to 45 degrees. Kabir was enjoying his first summer trip; neglecting the heated bus rooftop. It takes about 1 hr. to cover 35 Km journey from Bhawanipatna to Kesinga by bus. After 35 mins of journey our bus reached Fastikudi, a sudden change in weather informed us of a rainstorm. Everyone in the bus was relaxed by the sudden disappearance of the heat and the Almighty Sun.
At 4.00 pm we reached Kesinga Station and got our ticket for Sambalpur. The train arrived at 5.00 pm and we became successful in getting ourselves adjusted in the local compartment. The storm which raised from Bay of Bengal earlier that day comforted us for rest of our journey. Drizzles outside, have made the whether pleasant. It was 9.00 O’clock when we reached Samabalpur Station. Sambalpur is a good city and could be compared with any other mediocre developed cities in India. I swiftly carried our luggage out of the station to the auto-rickshaw stand and then ordered an Auto driver to take us to Hotel Krishna. Hotel Krishna was situated in the heart of the city and moreover I stayed there whenever I visited Sambalpur during my official tours. We easily got a room in the hotel for the night stay.
Dt. 03-04-09
Our train was scheduled to depart at 1.30 pm from Sambalpur Station. Time period of 5-6 hrs. in hand , and my wife, a perfect combination for a shopping situation in Sambalpur. So we spent rest of our time in Sambalpur, wandering the city, shopping, eating and comparing Sambalpur with Bhawanipatna. At 1.30 we caught our train to Banaras from Sambalpur, the train started for Banaras at scheduled time…
to be continued...
Dt : 10-04-2009
This summer I really didn't made any meticulous plan to spend my vacation. I , my wife Sunita and son Kabir were really eager to visit my ancestral house in Kolkata, after a year long parting from home , from my parents, from my bros. Earlier We have made plans during prevoius year Autumn break to visit Varanasi. Varanasi - where half of my relatives leave , the maternal half as well as the migrated paternal half. The trip remained due for an unexpected official task during the autumn break. We had to cancel our plans. My wife consoled me saying that Baba Vishwanath is not eager to meet us. Well Man proposes God opposes, I thought. This summer vacation we did discussed that we should again try to visit Varanasi. But the fact that we had been long away from our parents in Kolkata, made us to give a second thought for the proposed trip, moreover the idea of going to leave a superlative place in terms of summer heat to a visit another which is also famous for its flamboyant heat was not at all logical to both of us. So we booked our tickets to Kolkata.But again God is almighty, my cousin at Varanasi whose marriage was postponed last year due to the sudden death of her father-in-law was fixed this year on 5th of May. 2009. My Aunt from Varanasi called us and invited to attend marriage ceremony.I was again with the job of cancelling Tickets and booking another for Varanasi. Luck favored us this time and we got Tickets. God sometime favors, when He is not working for another company.Well It was great to hear that all of my family members from Kolkata were also going to attend marriage ceremony at Banaras. Dt : 13-04-09We tried to get tickets to Banaras via Raipur route but, you are never sure to get one during the summer in India. I enquired for the ticket on NET, ending up only with two AC Waiting List tickets to Banaras. Still the waiting list number 01 and 02 didn’t comfort me, because I knew that it is never going to shift anyway.
Dt : 20-04-09
I was in School when my wife rang me and told me that she booked two confirmed AC tickets to Banaras on NET via Sambalpur, in case that our tickets via Raipur didn’t get confirmed. I was both happy and sad about her action. I knew that getting tickets during summer vacation to Banaras was next to impossible, but getting it via Sambalpur is not anyway less painful. The reason behind this was that Sambalpur is about 192 Km from our boarding Station Kesinga, and more pain added to that is there is no Superfast train playing between Kesinga and Sambalpur for our day of journey. So finally the situation stood that We have to board for Sambalpur on 02/05/2009 on a Local Passenger train, for a 4-6 hrs. clumsy journey , making a overnight stay that day in Sambalpur and then catch our train to Banaras on the very next day. It is easy to say all these plans verbally, but the thought that the scorching heat in Kesinga may arise upto anything between 45 0C to 490C on 2nd of May. God marriages are really made in heaven and the sufferers are on Earth. But I was still optimist about confirmation of tickets via Raipur, a bit though.
Dt. 25-04-09
I checked the status of our tickets, finding it immoveable as if like paws of Angad. I cancelled them thinking that we already had one option, why to wait for second, insanely. People always want a second option in-spite that; they have already one with them. Actually we never trust on sure shot options.
Dt. 02-04-09
It was morning 6.30, I woke up only to find that, the whole town was covered by the blinding sunlight, as if the Sun didn’t went anywhere but Bhawanipatna. It was 38 degree by 7.30 am, the local news revealed. I went school to take my last day classes before vacation. At 10.00 am I returned back from school, and started to get ready for the trip ahead. At 2.30 pm we started from Bhawanipatna Bus stand for Kesinga Railway station, it was a hot, dry day; temperature roared up to 45 degrees. Kabir was enjoying his first summer trip; neglecting the heated bus rooftop. It takes about 1 hr. to cover 35 Km journey from Bhawanipatna to Kesinga by bus. After 35 mins of journey our bus reached Fastikudi, a sudden change in weather informed us of a rainstorm. Everyone in the bus was relaxed by the sudden disappearance of the heat and the Almighty Sun.
At 4.00 pm we reached Kesinga Station and got our ticket for Sambalpur. The train arrived at 5.00 pm and we became successful in getting ourselves adjusted in the local compartment. The storm which raised from Bay of Bengal earlier that day comforted us for rest of our journey. Drizzles outside, have made the whether pleasant. It was 9.00 O’clock when we reached Samabalpur Station. Sambalpur is a good city and could be compared with any other mediocre developed cities in India. I swiftly carried our luggage out of the station to the auto-rickshaw stand and then ordered an Auto driver to take us to Hotel Krishna. Hotel Krishna was situated in the heart of the city and moreover I stayed there whenever I visited Sambalpur during my official tours. We easily got a room in the hotel for the night stay.
Dt. 03-04-09
Our train was scheduled to depart at 1.30 pm from Sambalpur Station. Time period of 5-6 hrs. in hand , and my wife, a perfect combination for a shopping situation in Sambalpur. So we spent rest of our time in Sambalpur, wandering the city, shopping, eating and comparing Sambalpur with Bhawanipatna. At 1.30 we caught our train to Banaras from Sambalpur, the train started for Banaras at scheduled time…
to be continued...
Tuesday, December 2, 2008
भगवान बचायें ( व्यंग )
बात उन दिनो की है जब मेरा ट्रान्सफर(टान-सफ़र) अयोध्या हुआ। सपरिवार मैं अपना डेरा लगाने चल निकला । कुछ पन्द्रह-सोलह रोज के अन्दर ही हमें एक नया मकान, रहने को मिल गया । अयोध्या-वासी वैसे तो ब़डे ही शान्त प्रकृति के लोग हैं , सिर्फ़ 'राम' का नाम सुन कर कभी-कभार विचलित ज़रूर हो जाते हैं । घर मिलते ही हमारी श्रिमति जी ज़रूरी चिज़ों का एक चिट्ठा तैयार करने लगीं । कुछ इस प्रकार का लिस्ट उन्होने हमें सौंपा :- १) पानी का मग । २) दो ताले (अपनी ही चाभी से खुलनें वाली) । ३) एक फ़ेविकोल का डब्बा ४) एक छोटा हथौडा । ५) एक किलो चींनी ६) दूध का ड्डब्बा । ७) हरि सब्जियाँ । ८) चायपत्ति । ९) दो बल्ब , ... ... २१) भगवान जी । पूरे लिस्ट को सरसरी निगाहों से देखते हुए मेरी आँखें लिस्ट की अन्तिम आयटम पर जा टिंकी । 'भगवान जी' , मैंने मन ही मन सोचा की इन्हें अब मैं कहाँ ढुँढ़ने जाऊँ । लाचार निगाहों से मैनें अपनी श्रिमति जी की ओर देखा और पूछा "हे महा माया , जिस प्रकार आपने बिना किसी दूविधा के ये अत्यन्त विचारनीय घोषणापत्र तैयार किया हैं , उसी प्रकार अपनी तेज़ और उर्वर दिमाग के प्रयोग से हमे ये बतलायें का कष्ट करें की यह 'भगवान' जैसा वस्तु कहाँ मिलेगा" । पत्नी ने तिरस्कारित नज़रो से देखते हुए कहा - "तुम्हीं तो कहते फ़िरते हो भगवान हर जगह पर है !! जाओ! ढूढँ लाओ" । मैने कहा ये तो कवियों और लेखको ने कहा है । मैं तो सिर्फ़ रटीं - रटाईं बातों को दौहराता रह्ता हूँ । बच्चों के सामने इम्प्रेशन जमाने के लिये । ...पत्नी ने कहा - "चलो हटो , फ़ज़ूल कि बातों मे वक्त बर्बाद ना करो" , "जाओ सामान ले कर आओ" । किंकर्तव्यविमूण स्थिती मे मैं घर से लिस्ट लिये , बाज़ार कि ओर चल पडा । मैं मन ही मन में सोचता चला जा रहा था कि भारतवासी होने के नाते मुझ पर ८४ करोड़ देवी - देवताओं का आशीर्वाद है । उनमें से ही कुछ के आशीर्वाद से मैं 'भगवान' ढूँढ़ने में सफ़ल हो ही जाऊँगा । लिस्ट के सारे आयटम क्र्मश: खरीदने के ऊपरान्त जब अन्तिम में 'भगवान जी' की बारी आयी तो मैं अपने दोनों चक्षुओं को दिव्य-दॄष्टि बना कर उन्हें ढुढँने पर भी, मैं सफ़ल नहीं हो पाया। एक बार तो मन हुआ कि घर वापस जा, पत्नी से स्पष्ट कह दूँ कि 'भगवान' नहीं मिले, परन्तु यह सोचकर डर गया की घर पहुँच कर पत्नी को भगवान मिलें या ना मिलें, मुझे जरूर 'राक्षस' की पदवी मिल जायेगी । तभी अचानक अन्धेरे में मुझे उजाले की एक हल्की सी झलक दिखाई दी । चौराहें से कुछ ही दूर एक मन्दिर के पास एक नवयुवक 'भगवान' बेच रहा था । मैने सोचा डूबते को तिनके क सहारा और मैं उस ओर दौड़ चला । पास पहुँच कर पाया की उसकी दुकान तरह-तरह के 'भगवानों' से सुसज्जित थी । एक ओर माँ दुर्गा आपने दस भुजाओं के साथ मुस्कुरा रहीं थीं , तो दूसरी ओर बजरंग-बली अपने गदे के साथ चुनौती दे रहे थे । 'शिव-पार्वती' , 'लक्ष्मी-गणेश' , 'राम-सीता' की जोडियाँ भी किसी घर से भागे नव-जोडियों की तरह मेरे घर मे छिपने को तैयार थीं । मैं टकटकी लगाये सारे 'भगवानों' को देख रहा था की किसे खरीदूँ या ना खरीदूँ । इतने सारे 'भगवानों' का एक साथ दर्शन पा मैं कन्फ्यूस हो गया था । तभी दिमाग मे एक विचार आया क्यों न पत्नी से ही पूँछ लूँ , की किसे लें ,, किसे न लें । तुरन्त मोबाइल घर पर मिलाया । पत्नी घर में भोजन बनाने में व्यस्त थीं , बड़ी बेरुखी से फोन के रिसीवर से आवाज़ आयी - "क्या है ???" जिस तरह कक्षा १ का छात्र , दौड़ , प्रतियोगिता में प्रथम आ , अपने माता-पिता को ये शुभ सूचना देता है , ठीक उसी तरह मै भी एक विजेता की तरह बोल उठा- "अजी ! भगवान मिल गये" । पत्नीं बोलीं - "तो मैं क्या करुँ ले आओ" । मैनें कहा "लें आऊँ , पर किसे?" , "यहाँ तो ढेर सारे हैं । तुम्हारी च्वायेश जानना भी तो ज़रूरी है । पत्नी ने कहा - "एक काम भी तुम खुद नहीं कर सकते" , "ले आओ - 'एक बजरंग-बली' , 'एक माँ दुर्गा' और 'एक शिव' " । मैं फोन काटने ही वाला था की पत्नी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा - "और देखो , बजरंग-बली के साथ , बैकग्राउन्ड़ में राम-सीता फ़्री में मिलने चाहिये, और शिव के साथ नंदी-बैल न हुआ तो, मुझ से बुरा कोई न होगा" । मैनें गलती न होने का आशवासन देते हुए फोन को काटा और वापस दुकान के 'भगवानों' को देखने लगा । बहुत सावधानी पूर्वक निरिक्षण करने पर मुझे यह ज्ञात हुआ की 'बजरंग-बली' के साथ 'राम-सीता' का अभाव था और 'शिव' के साथ नंदी का कोसों दूर तक कोई अता-पता नहीं था । मैनें बेचने वाले से पूछा - " क्या हुआ जी - 'हनुमान जी' के साथ 'राम-सीता' क्यों नहीं हैं ? " उसने जवाब दिया - "अरे भईया , ओकर स्टाँकवा सीमित रहा , कपंनी ऊ आफ़रवे बंद कर दी है" । "ई सब ऊ टाटा , रिलाईंस वाले पूंजिपतियों की शाजिश है" । मैनें सोचा 'भगवान' कम देकर , कपंनी वाले कौन सा तीर मार लेंगे । मैनें कहा - "ठीक है , ठीक है चलो इन दोनों को पैक कर दो" । तभी मुझे याद आया की अरे एक दुर्गा भी तो लेनी हैं । मैनें अपनी नज़रें 'दूर्गा' पर ड़ाली और देखने लगा की यहाँ क्या कटौती की गयी है । तभी दूकान वाले ने कहा " अरे , क्या देखते हो जी - ऐसी परफ़ेक्ट 'दूर्गा' , पूरे बाज़ार में नहीं मिलेगी" । मैं उसकी बात को अनसुनी कर 'दूर्गा' को ध्यान से देखने लगा । बहुत ध्यान से देखने पर मुझे यह शंका हुई की इन 'दुर्गाजी' एवं इनके हाथों मार खा रहे 'राक्षस' के चेहरे बहुत जानी पहचानी थीं । मैनें अपने दिमाग पर बहुत बल ड़ाला, की इनको हमनें कहाँ देखा है??? तभी सामने वाली एक चाय के दुकान में चल रही टी०वी० में वे दुर्गा माता अपने चेले चपाटों के साथ एक रैली को सम्बोधित करतीं नज़र आयीं , फ़र्क सिर्फ़ इतना था की उनके हाथों मार खा रहा 'राक्षस' अब उन्हीं के साथ फूल-मालाओं से सुसज्जित खड़ा था ।मैनें चुप-चाप तीनों 'भगवानों' को दो एक्स्ट्रा पालीथीनों में पैक कराया और वापस घर की ओर चल पड़ा ।
- कमल कान्त गुप्ता
- कमल कान्त गुप्ता
Sunday, April 20, 2008
Black and White... a sensible film
Hats off to the director of the film Black and White. Though this film is also,like many other previous ,based on the global concern of terrorism. But the story line and the concept is somewhat more experimental than many other prevoius attempts. The story mainly revolves round a young Boy from afganistan, who is sent to India as a jehadi for a suicide bombing plot. The boy is having a rigid sentiments about his religion. When he reaches India, he is introduced to a Urdu professor and his wife. Both of them though a Hindu , lives in midst of a locality of Chandni chowk which is an area containing mixed prortions of Hindus and Muslims. The professor is regarded as one of the peacemakers of that locality and his wife a social activist. The Boy comes closer to this family, for attaining their confidence to accomplish his mission successfully. But living with them , understanding their feelings and emotions towards the motherland and humanity, creates a storm of Good and bad , Black and White in his mind. He is being taught silently that, this country is not having only dual colors : Black and White it also contains other various colors with numerous emotions. His mind becomes entangled in the tought that whether he should opt for the attack or should withdraw. He opts to attack. But does he really does that... go and watch the movie, its wortgh watching than watching a "Race".
Kamal Kant Gupta
PGT Comp. Sc.
Kamal Kant Gupta
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