बात उन दिनो की है जब मेरा ट्रान्सफर(टान-सफ़र) अयोध्या हुआ। सपरिवार मैं अपना डेरा लगाने चल निकला । कुछ पन्द्रह-सोलह रोज के अन्दर ही हमें एक नया मकान, रहने को मिल गया । अयोध्या-वासी वैसे तो ब़डे ही शान्त प्रकृति के लोग हैं , सिर्फ़ 'राम' का नाम सुन कर कभी-कभार विचलित ज़रूर हो जाते हैं । घर मिलते ही हमारी श्रिमति जी ज़रूरी चिज़ों का एक चिट्ठा तैयार करने लगीं । कुछ इस प्रकार का लिस्ट उन्होने हमें सौंपा :- १) पानी का मग । २) दो ताले (अपनी ही चाभी से खुलनें वाली) । ३) एक फ़ेविकोल का डब्बा ४) एक छोटा हथौडा । ५) एक किलो चींनी ६) दूध का ड्डब्बा । ७) हरि सब्जियाँ । ८) चायपत्ति । ९) दो बल्ब , ... ... २१) भगवान जी । पूरे लिस्ट को सरसरी निगाहों से देखते हुए मेरी आँखें लिस्ट की अन्तिम आयटम पर जा टिंकी । 'भगवान जी' , मैंने मन ही मन सोचा की इन्हें अब मैं कहाँ ढुँढ़ने जाऊँ । लाचार निगाहों से मैनें अपनी श्रिमति जी की ओर देखा और पूछा "हे महा माया , जिस प्रकार आपने बिना किसी दूविधा के ये अत्यन्त विचारनीय घोषणापत्र तैयार किया हैं , उसी प्रकार अपनी तेज़ और उर्वर दिमाग के प्रयोग से हमे ये बतलायें का कष्ट करें की यह 'भगवान' जैसा वस्तु कहाँ मिलेगा" । पत्नी ने तिरस्कारित नज़रो से देखते हुए कहा - "तुम्हीं तो कहते फ़िरते हो भगवान हर जगह पर है !! जाओ! ढूढँ लाओ" । मैने कहा ये तो कवियों और लेखको ने कहा है । मैं तो सिर्फ़ रटीं - रटाईं बातों को दौहराता रह्ता हूँ । बच्चों के सामने इम्प्रेशन जमाने के लिये । ...पत्नी ने कहा - "चलो हटो , फ़ज़ूल कि बातों मे वक्त बर्बाद ना करो" , "जाओ सामान ले कर आओ" । किंकर्तव्यविमूण स्थिती मे मैं घर से लिस्ट लिये , बाज़ार कि ओर चल पडा । मैं मन ही मन में सोचता चला जा रहा था कि भारतवासी होने के नाते मुझ पर ८४ करोड़ देवी - देवताओं का आशीर्वाद है । उनमें से ही कुछ के आशीर्वाद से मैं 'भगवान' ढूँढ़ने में सफ़ल हो ही जाऊँगा । लिस्ट के सारे आयटम क्र्मश: खरीदने के ऊपरान्त जब अन्तिम में 'भगवान जी' की बारी आयी तो मैं अपने दोनों चक्षुओं को दिव्य-दॄष्टि बना कर उन्हें ढुढँने पर भी, मैं सफ़ल नहीं हो पाया। एक बार तो मन हुआ कि घर वापस जा, पत्नी से स्पष्ट कह दूँ कि 'भगवान' नहीं मिले, परन्तु यह सोचकर डर गया की घर पहुँच कर पत्नी को भगवान मिलें या ना मिलें, मुझे जरूर 'राक्षस' की पदवी मिल जायेगी । तभी अचानक अन्धेरे में मुझे उजाले की एक हल्की सी झलक दिखाई दी । चौराहें से कुछ ही दूर एक मन्दिर के पास एक नवयुवक 'भगवान' बेच रहा था । मैने सोचा डूबते को तिनके क सहारा और मैं उस ओर दौड़ चला । पास पहुँच कर पाया की उसकी दुकान तरह-तरह के 'भगवानों' से सुसज्जित थी । एक ओर माँ दुर्गा आपने दस भुजाओं के साथ मुस्कुरा रहीं थीं , तो दूसरी ओर बजरंग-बली अपने गदे के साथ चुनौती दे रहे थे । 'शिव-पार्वती' , 'लक्ष्मी-गणेश' , 'राम-सीता' की जोडियाँ भी किसी घर से भागे नव-जोडियों की तरह मेरे घर मे छिपने को तैयार थीं । मैं टकटकी लगाये सारे 'भगवानों' को देख रहा था की किसे खरीदूँ या ना खरीदूँ । इतने सारे 'भगवानों' का एक साथ दर्शन पा मैं कन्फ्यूस हो गया था । तभी दिमाग मे एक विचार आया क्यों न पत्नी से ही पूँछ लूँ , की किसे लें ,, किसे न लें । तुरन्त मोबाइल घर पर मिलाया । पत्नी घर में भोजन बनाने में व्यस्त थीं , बड़ी बेरुखी से फोन के रिसीवर से आवाज़ आयी - "क्या है ???" जिस तरह कक्षा १ का छात्र , दौड़ , प्रतियोगिता में प्रथम आ , अपने माता-पिता को ये शुभ सूचना देता है , ठीक उसी तरह मै भी एक विजेता की तरह बोल उठा- "अजी ! भगवान मिल गये" । पत्नीं बोलीं - "तो मैं क्या करुँ ले आओ" । मैनें कहा "लें आऊँ , पर किसे?" , "यहाँ तो ढेर सारे हैं । तुम्हारी च्वायेश जानना भी तो ज़रूरी है । पत्नी ने कहा - "एक काम भी तुम खुद नहीं कर सकते" , "ले आओ - 'एक बजरंग-बली' , 'एक माँ दुर्गा' और 'एक शिव' " । मैं फोन काटने ही वाला था की पत्नी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा - "और देखो , बजरंग-बली के साथ , बैकग्राउन्ड़ में राम-सीता फ़्री में मिलने चाहिये, और शिव के साथ नंदी-बैल न हुआ तो, मुझ से बुरा कोई न होगा" । मैनें गलती न होने का आशवासन देते हुए फोन को काटा और वापस दुकान के 'भगवानों' को देखने लगा । बहुत सावधानी पूर्वक निरिक्षण करने पर मुझे यह ज्ञात हुआ की 'बजरंग-बली' के साथ 'राम-सीता' का अभाव था और 'शिव' के साथ नंदी का कोसों दूर तक कोई अता-पता नहीं था । मैनें बेचने वाले से पूछा - " क्या हुआ जी - 'हनुमान जी' के साथ 'राम-सीता' क्यों नहीं हैं ? " उसने जवाब दिया - "अरे भईया , ओकर स्टाँकवा सीमित रहा , कपंनी ऊ आफ़रवे बंद कर दी है" । "ई सब ऊ टाटा , रिलाईंस वाले पूंजिपतियों की शाजिश है" । मैनें सोचा 'भगवान' कम देकर , कपंनी वाले कौन सा तीर मार लेंगे । मैनें कहा - "ठीक है , ठीक है चलो इन दोनों को पैक कर दो" । तभी मुझे याद आया की अरे एक दुर्गा भी तो लेनी हैं । मैनें अपनी नज़रें 'दूर्गा' पर ड़ाली और देखने लगा की यहाँ क्या कटौती की गयी है । तभी दूकान वाले ने कहा " अरे , क्या देखते हो जी - ऐसी परफ़ेक्ट 'दूर्गा' , पूरे बाज़ार में नहीं मिलेगी" । मैं उसकी बात को अनसुनी कर 'दूर्गा' को ध्यान से देखने लगा । बहुत ध्यान से देखने पर मुझे यह शंका हुई की इन 'दुर्गाजी' एवं इनके हाथों मार खा रहे 'राक्षस' के चेहरे बहुत जानी पहचानी थीं । मैनें अपने दिमाग पर बहुत बल ड़ाला, की इनको हमनें कहाँ देखा है??? तभी सामने वाली एक चाय के दुकान में चल रही टी०वी० में वे दुर्गा माता अपने चेले चपाटों के साथ एक रैली को सम्बोधित करतीं नज़र आयीं , फ़र्क सिर्फ़ इतना था की उनके हाथों मार खा रहा 'राक्षस' अब उन्हीं के साथ फूल-मालाओं से सुसज्जित खड़ा था ।मैनें चुप-चाप तीनों 'भगवानों' को दो एक्स्ट्रा पालीथीनों में पैक कराया और वापस घर की ओर चल पड़ा ।
- कमल कान्त गुप्ता
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5 comments:
Good
remoove Word Verification
Mazedar dhanse likha hai...
shubhkamnayen...aur mere blogpe aaneka nimantran.....kuchh daring ceez karne jaa rahi hun, maujooda halako dekhte hue...shubhkamnaye chahti hun....
well done!!!keep going.......
invitation of my blog
www.chitrasansar.blogspot.com
सादर अभिवादन बन्धु
पहले तो हिन्दी ब्लोग्स के नये साथियों मे आपका स्वागत है , बधाई स्वीकार करें
चलिये अपने रचनात्मक परिचय के लिये पिछले दिनो के दुखद दौर मे लिखने मे आये ये २-३ मुक्तक देखें .
हर दिल मे हर नज़र मे , तबाही मचा गये
हँसते हुए शहर में , तबाही मचा गए
हम सब तमाशबीन बने देखते रहे
बाहर के लोग घर में , तबाही मचा गए
और
राजधानी चुप रही ..
किसलिए सारे जावानों की जवानी चुप रही
क्यों हमारी वीरता की हर कहानी चुप रही
आ गया है वक्त पूछा जाय आख़िर किसलिए
लोग चीखे , देश रोया , राजधानी चुप रही
और
हमको दिल्ली वापस दो
सारा बचपन ,खेल खिलौने ,
चिल्ला-चिल्ली वापस दो
छोडो तुम मैदान हमारा ,
डन्डा - गिल्ली वापस दो
ऐसी - वैसी चीजें देकर ,
अब हमको बहलाओ मत
हमने तुमको दिल्ली दी थी ,
हमको दिल्ली वापस दो...
चलिये शेश फ़िर कभी
आपकी प्रतिक्रियाओं का इन्तज़ार रहेगा
डॉ . उदय 'मणि '
684महावीर नगर द्वितीय
94142-60806
(सार्थक और समर्थ रचनाओं के लिये देखें )
http://mainsamayhun.blogspot.com
आपका लेख पढ़कर हम और अन्य ब्लॉगर्स बार-बार तारीफ़ करना चाहेंगे पर ये वर्ड वेरिफिकेशन (Word Verification) बीच में दीवार बन जाता है.
आप यदि इसे कृपा करके हटा दें, तो हमारे लिए आपकी तारीफ़ करना आसान हो जायेगा.
इसके लिए आप अपने ब्लॉग के डैशबोर्ड (dashboard) में जाएँ, फ़िर settings, फ़िर comments, फ़िर { Show word verification for comments? } नीचे से तीसरा प्रश्न है ,
उसमें 'yes' पर tick है, उसे आप 'no' कर दें और नीचे का लाल बटन 'save settings' क्लिक कर दें. बस काम हो गया.
आप भी न, एकदम्मे स्मार्ट हो.
और भी खेल-तमाशे सीखें सिर्फ़ 'ब्लॉग्स पण्डित' पर.
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